जिदंगी: एक अंजाना सा सफर ही।

बस स्टॉप।
बडी भिड होती हैं यहां पर।
सब इंतजार और बेसब्री मे होते;
कुछ हर दो मिनट अपनी घडी की ओर ताकतें,
कुछ वक्त की रफ्तार को कोसते,
कुछ करीब वाले से पता पुछ लेते,
और कुछ पास की दुकानों मे वक्त खर्च करते।

जब बस आती,
तो मानों अचानक सब एक हडबडी का हिस्सा बन जाते;
कुछ धक्का-मुक्की करकर बस मे चढ जाते,
और कुछ पीछे ही रह जाते।

बस के भीतर लोग तलाशते एक खाली सीट,
जहाँ बैठ सकें वह सुकून से;
पर नसीब नहीं होती यह आसानी से।
लेकिन बस मे कुछ दिलवाले मिल ही जाते।

कुछ वक्त बाद जब कंडक्टर "टिकट! टिकट!" करता आता,
लोग ईमानदारी से टिकटें खरीदते।
लेकिन कुछ के पास छुट्टे ना हो तो,
पास के व्यक्ति से दो पल बात हो जाती।

सडक के उन डगर से उछलते बस मे,
लोग आपस मे कहीं बार टकराते;
कुछ माफी मांग लेते,
और कुछ झगडों मे लिपट जाते।
लेकिन सफर मे सब पहले सा हो जाता।

अजीब सी बात हैं।
एक छोटीसी छत के निचे कुछ अंजाने करीब आ जाते;
एक अंजानी भीड़ मे भी अपना-पन मेहसूस करते।
लेकिन जैसे-जैसे लोगों की मंजिलें आती,
लोग उतर जाते। 
जिनकी मंजिल अभी आईं नहीं होती,
वो रह जाते और अब उन्हें खाली सीटें मिल ही जाती।

सफर लोगों के साथ ओर लंबा हो जाता।
वक्त को खर्च करने के लिए,
लोग पास वाले से गुफ्तगू करने का बहाना ढूंढ ही लेते।

पर जब बस आखिरी स्टॉप पर रुक जाती,
तो सब राहतें भर उतर जाते।
अपनी मंजिल जो मिल जाती।
पर सब अंजान से हो जाते।

कमाल की बात हैं।
दो पल के सफर मे लोग घुलमिल जाते,
और मंजिल मिलने के बाद अजनबी बन जाते।
लेकिन हमारी जिंदगी भी तो कुछ इसी तरह की हैं। 
अंजानी सी।
हम लोगों को हमारी मंजिलों को पाने की दौड़ मे ही मिलते हैं।
और जब मंजिल मिल जाती, 
तो हम अजनबी से हो जाते।

इस सफर का कहीं बार हिस्सेदार होकर अब लगता हैं की:
"जिदंगी एक अंजाना सा सफर ही"।

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